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देवता: इन्द्रः ऋषि: गोतमो राहूगणः छन्द: अनुष्टुप् स्वर: गान्धारः काण्ड:

न꣢ कि꣣ष्ट्व꣢द्र꣣थी꣡त꣢रो꣣ ह꣢री꣣ य꣡दि꣢न्द्र꣣ य꣡च्छ꣢से । न꣢ कि꣣ष्ट्वा꣡नु꣢ म꣣ज्म꣢ना꣣ न꣢ किः꣣ स्व꣡श्व꣢ आनशे ॥९५०॥

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स्वर-रहित-मन्त्र

न किष्ट्वद्रथीतरो हरी यदिन्द्र यच्छसे । न किष्ट्वानु मज्मना न किः स्वश्व आनशे ॥९५०॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

न । किः꣣ । त्व꣢त् । र꣣थी꣡त꣢रः । हरी꣢꣯इ꣡ति꣢ । यत् । इ꣣न्द्र । य꣡च्छ꣢꣯से । न । किः꣣ । त्वा । अ꣡नु꣢꣯ । म꣣ज्म꣡ना꣢ । न । किः꣣ । स्व꣡श्वः꣢꣯ । सु꣣ । अ꣡श्वः꣢꣯ । आ꣡नशे ॥९५०॥

सामवेद » - उत्तरार्चिकः » मन्त्र संख्या - 950 | (कौथोम) 3 » 1 » 21 » 2 | (रानायाणीय) 5 » 6 » 6 » 2


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हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

पुनः जीवात्मा को सम्बोधन किया गया है।

पदार्थान्वयभाषाः -

हे (इन्द्र) विघ्नों को विदीर्ण करनेवाले जीवात्मन् ! (न किः) कोई भी नहीं (त्वत्) तेरी अपेक्षा (रथीतरः) अधिक प्रशस्त रथारोही है, (यत्) क्योंकि, तू (हरी) ज्ञानेन्द्रिय-कर्मेन्द्रिय-रूप घोड़ों को (यच्छसे)शरीररूप रथ में नियन्त्रित किये रखता है। (न किः) कोई भी नहीं (त्वा) तेरी (मज्मना) बल में (अनु) बराबरी करता है। (न किः) कोई भी नहीं (स्वश्वः) उत्कृष्ट घोड़ोंवाला भी (आनशे) तेरे बराबर हो सकता है ॥२॥

भावार्थभाषाः -

प्रोद्बोधन दिया हुआ जीवात्मा जब वीररस को अपने अन्दर सञ्चारित करता है तब कोई भी अन्य उसकी बराबरी नहीं कर सकता ॥२॥

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संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

अथ पुनर्जीवात्मा सम्बोध्यते।

पदार्थान्वयभाषाः -

हे (इन्द्र) विघ्नविद्रावक जीवात्मन् ! (न किः) न कोऽपि (त्वत्) त्वदपक्षेया (रथीतरः) अतिशयेन प्रशस्तः रथारोही अस्ति, (यत्) यस्मात्, त्वम् (हरी) ज्ञानेन्द्रियकर्मेन्द्रियरूपौ अश्वौ (यच्छसे) देहरथे नियन्त्रयसि। (न किः) न कश्चित् (त्वा) त्वाम् (मज्मना) बलेन। [मज्म इति बलनाम। निघं० २।९।] (अनु)अनुकरोति। (न किः) नैव कश्चित् (स्वश्वः) शोभनाश्वः अपि (आनशे) त्वां व्याप्नोति, त्वत्तुल्योऽस्तीति भावः ॥२॥२

भावार्थभाषाः -

प्रोद्बोधितो जीवात्मा यदा वीररसं स्वात्मनि सञ्चारयति तदा न कोऽप्यन्यस्तत्तुल्यतां कर्त्तुमर्हति ॥२॥

टिप्पणी: १. ऋ० १।८४।६। २. ऋग्भाष्ये दयानन्दर्षिर्मन्त्रमिमं सभाध्यक्षसेनाध्यक्षविषये व्याख्यातवान्।